Headlines

जयंती पर विशेष

Spread the love

डॉ. भीमराव अंबेडकर: समता, न्याय और नवभारत के निर्माता

भारतीय इतिहास में कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं जो अपने विचारों, संघर्षों और कृतित्वों से युगों को दिशा देते हैं। डॉ. भीमराव अंबेडकर निःसंदेह ऐसे ही महामानव थे, जिन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की जिसमें हर व्यक्ति को समान अधिकार, अवसर और सम्मान प्राप्त हो। वे न केवल संविधान निर्माता थे, बल्कि एक चिंतक, समाजसुधारक, शिक्षाविद और मानवतावादी नेता भी थे, जिनका उद्देश्य केवल सत्ता प्राप्ति नहीं बल्कि समाज को जड़ से बदलना था।

राजनीतिक चिंतन: लोकतंत्र केवल शासन नहीं, जीवन पद्धति है

डॉ. अंबेडकर का राजनीतिक दर्शन भारत के लोकतांत्रिक ढांचे की रीढ़ है। उनके अनुसार लोकतंत्र का अर्थ केवल मताधिकार प्राप्त कर सरकार चुनना नहीं, बल्कि हर नागरिक को गरिमा, समानता और न्याय की गारंटी देना है।

वे उस लोकतंत्र के पक्षधर थे जो सामाजिक और आर्थिक न्याय की नींव पर खड़ा हो। उनका स्पष्ट मत था कि केवल राजनीतिक स्वतंत्रता पर्याप्त नहीं, जब तक समाज में विषमता और भेदभाव बना रहेगा, तब तक लोकतंत्र अधूरा रहेगा।

उन्होंने कहा था –
“राजनीतिक लोकतंत्र तब तक स्थाई नहीं हो सकता जब तक वह सामाजिक लोकतंत्र पर आधारित न हो।”

उन्होंने संसदीय प्रणाली का समर्थन किया क्योंकि वह जनता की सहभागिता और उत्तरदायित्व सुनिश्चित करती है।

वे तानाशाही के घोर विरोधी थे और मानते थे कि शासन वह हो जो जनता के प्रति जवाबदेह हो, चाहे उसके परिणाम तत्काल दिखाई दें या नहीं।

उनके लिए लोकतंत्र संविधान की धाराओं से अधिक, समाज की चेतना में समाहित मूल्य था — समानता, बंधुत्व और स्वतंत्रता।

सामाजिक दृष्टिकोण: जाति-व्यवस्था के विरुद्ध क्रांति

भारतीय समाज में जातिवाद और अस्पृश्यता जैसी कुप्रथाओं के विरुद्ध डॉ. अंबेडकर का संघर्ष अत्यंत साहसी और युगांतरकारी था। उन्होंने स्वयं एक दलित के रूप में इन अत्याचारों को झेला और फिर उसी पीड़ा को शक्ति में बदलकर समूचे दलित समाज के उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया।

छुआछूत के विरुद्ध उनका संघर्ष केवल सामाजिक नहीं, नैतिक और संवैधानिक क्रांति था।

उन्होंने संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर उन्हें शिक्षा, रोजगार और राजनीति में प्रतिनिधित्व का अधिकार दिलाया।

डॉ. अंबेडकर ने कहा था –
“मैं उस धर्म को मानता हूँ जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व सिखाता है।”

उनका विश्वास था कि दलितों को कोई और मुक्त नहीं करेगा; उन्हें स्वयं संगठित, शिक्षित और संघर्षशील बनना होगा।

उन्होंने अंततः बौद्ध धर्म को अपनाया, क्योंकि वह जातिविहीन, वैज्ञानिक और मानवतावादी धर्म है। यह कदम केवल धार्मिक नहीं था, यह सामाजिक क्रांति का घोषणापत्र था।

शिक्षा के विचार: चेतना का प्रकाश

डॉ. अंबेडकर का मानना था कि शिक्षा ही वह शस्त्र है जिससे सामाजिक क्रांति लाई जा सकती है। उन्होंने जीवन भर शिक्षा को सबसे बड़ा अधिकार और साधन माना, विशेषकर वंचित वर्गों और स्त्रियों के लिए।

उनका प्रसिद्ध उद्घोष था –
“शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो।”

वे मानते थे कि बिना शिक्षा, न आत्मसम्मान संभव है, न अधिकारों की रक्षा।

उन्होंने स्त्री शिक्षा पर विशेष बल दिया और कहा कि जब तक महिलाएँ शिक्षित नहीं होंगी, समाज का संपूर्ण विकास असंभव है।

उन्होंने गरीब छात्रों के लिए छात्रवृत्तियाँ, पुस्तकालय, छात्रावास और संस्थान स्थापित किए, ताकि शिक्षा वास्तव में सभी के लिए सुलभ हो।

आर्थिक सोच: पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद दोनों का विरोध

डॉ. अंबेडकर का आर्थिक दृष्टिकोण उतना ही क्रांतिकारी था जितना उनका सामाजिक चिंतन। वे पूंजीवादी शोषण के खिलाफ थे, लेकिन समाजवाद की अंधभक्ति के पक्ष में भी नहीं थे। उन्होंने राज्य समाजवाद का पक्ष लिया, जिसमें उत्पादन के साधनों पर राज्य का नियंत्रण हो और सामाजिक कल्याण सर्वोच्च लक्ष्य हो।

उन्होंने भूमि सुधार, कृषि संकट, श्रमिक अधिकार, महिला श्रमिकों की स्थिति जैसे मुद्दों पर व्यापक लेखन किया।

उनका सुझाव था कि राज्य को योजनाबद्ध विकास के साथ समाज के कमजोर वर्गों को प्राथमिकता देनी चाहिए।

अंबेडकर के विचार, आज की आवश्यकता

आज जब हम 21वीं सदी के भारत में सामाजिक न्याय, आर्थिक समानता और राजनीतिक पारदर्शिता की बातें करते हैं, तब डॉ. अंबेडकर की सोच और अधिक प्रासंगिक हो जाती है।
उनका जीवन संदेश है कि संविधान केवल कागजों में नहीं, समाज के आचरण में जीवंत होना चाहिए।
भारत यदि वास्तव में प्रगतिशील और समतामूलक राष्ट्र बनना चाहता है तो हमें डॉ. अंबेडकर के विचारों को न केवल स्मरण करना होगा, बल्कि उन्हें अपने व्यवहार और नीतियों में भी उतारना होगा।

समापन उद्धरण

“हम सबसे पहले और अंत में, भारतीय हैं। हमें इस बात पर गर्व होना चाहिए कि हमने एक ऐसा संविधान रचा, जो दुनिया के सबसे वंचित नागरिक को भी गरिमा प्रदान करता है।”
— डॉ. भीमराव अंबेडकर

लेखक: डा. जवाहर पासवान
प्रधानाचार्य, के. पी. कॉलेज, मुरलीगंज, मधेपुरा (बिहार)
सीनेट एवं सिंडिकेट सदस्य, बी एन एम यू, मधेपुरा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Top